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प्रेम को उपलब्ध होना है तो मस्तिष्क से सारी चेतना हृदय की तरफ प्रवाहित होनी चाहिए: ओशो

GHAZIABAD : यह बड़ी क्रांति है, रूपांतरण है। यह कोई छोटा काम नहीं है। यह बड़े से बड़ा काम है जो आदमी जीवन में कर सकता है। यह बड़ी से बड़ी चुनौती है। चेतना मस्तिष्क में जाकर अटक गई है। क्योंकि तुम्हारा सारा शिक्षण, तुम्हारे स्कूल, तुम्हारे विद्यालय, तुम्हारे विश्वविद्यालय, तुम्हारा समाज, संस्कृति, सभ्यता, सबका एक ही आग्रह है कि चेतना को मस्तिष्क में ले जाओ। तो गणित सिखाओ, तर्क सिखाओ, भूगोल-इतिहास सिखाओ--सब सिखाओ, एक प्रेम भर नहीं सिखाया जाता। एक प्रेम की झलक भर मत उतरने देना। प्रेम को तो बिलकुल काट ही दो। 
आदमी को ऐसे हमने गुजरना सिखाया है कि हृदय से बच कर निकल जाता है। हृदय रास्ते पर आता ही नहीं। हमें हृदय का मार्ग ही भूल गया है। तो अगर हम भक्ति भी करते हैं तो वह भी मस्तिष्क में ही रहती है, वह भी हृदय तक नहीं आती। और हृदय तक न आए, तो भक्ति ही नहीं है, प्रेम ही नहीं है।
हृदय तक लाने का उपाय क्या है?

ध्यान की कुदाली से काट डालने होंगे विचार के सारे तंतु। ध्यान की तलवार से विचार की सारी की सारी जड़ें काट डालनी होंगी, ताकि चेतना मस्तिष्क से मुक्त हो जाए। और मस्तिष्क से मुक्त हो तो तत्क्षण हृदय में प्रवेश हो जाती है। 

प्रेम ध्यान की परिणति है। और आज का मनुष्य तो बिना ध्यान के प्रेम की तरफ नहीं जा सकता।

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि मैं भक्ति पर इतना बोलता हूं, और करवाता तो हूं आश्रम में ध्यान! कारण साफ है। आधुनिक मनुष्य इतना मस्तिष्क से भर गया है कि ध्यान से ही उसके मस्तिष्क को अब तोड़ा जा सकता है। और मस्तिष्क से उसके संबंध शिथिल हो जाएं, मस्तिष्क से उसकी ऊर्जा मुक्त हो जाए, तो दूसरी कोई जगह ही नहीं है तुम्हारे भीतर जहां ऊर्जा जा सके। दो ही स्थान हैं, या तो मस्तिष्क या हृदय। या तो तर्क या प्रेम। या तो गणित या काव्य। अगर गणित, तर्क से मुक्त हो जाए तुम्हारी चेतना, तो तत्क्षण, अपने आप चेतना की लहर हृदय में पहुंच जाएगी। और उस हृदय में लहर का पहुंच जाना सबसे अपूर्व घटना है। मगर उसके लिए मस्तिष्क से मुक्त होना! और मस्तिष्क में हमारे बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। वही हमारी शिक्षा, वही हमारा तादात्म्य, वही हमारा अहंकार, उसी में तो हम नियोजित हैं। उसको छोड़ना सरल नहीं हो सकता; साधु-संत झूठी बातें कहते हैं। तुम सुनना चाहते हो झूठी बातें तो तुमसे झूठी बातें कही जाती हैं।

छोटे बच्चे भूत-प्रेत की परीकथाएं सुनना चाहते हैं तो उनको भूत-प्रेत की और परियों की कथाएं सुनाई जाती हैं। ऐसे ही तुम छोटे बच्चे हो। तुम सस्ती बातें सुनना चाहते हो, सस्ते साधु-संत हैं, जो गांव-गांव घूम कर तुम्हें तृप्ति देते रहते हैं, तुम्हारी मलहम-पट्टी करते रहते हैं; तुम्हारे घावों को उघड़ने नहीं देते, तुम्हारी बीमारियों को प्रकट नहीं होने देते; तुम्हारे रोगों को ढांके रखते हैं, फूलों में सजाए रखते हैं। और यह ठीक भी है। तुम जो भाषा समझते हो, वही भाषा वे बोलते हैं, तो ही तुम उन्हें सम्मान दोगे, तो ही उनका व्यवसाय चलेगा। 
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तुम जो चाहते हो, तुम्हें दिया जाता है। और जब तुम जो चाहते हो वही तुम्हें मिलता है, तो तुम बड़े प्रसन्न होते हो। तुम्हारी धारणाएं, अंधी धारणाएं, तुम्हारे अंधविश्वास परिपुष्ट किए गए, तुम्हारा अहंकार मजबूत हुआ, तुम प्रसन्नचित्त लौटते हो।

सदगुरु के पास जाओगे तो झकझोरे जाओगे, तोड़े जाओगे, मिटाए जाओगे। सदगुरु के पास जाने के लिए साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए। सदगुरु के पास बैठने के लिए तैयारी चाहिए, कि गर्दन कटे तो कट जाए। कबीर कहते हैं: कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारै आपना चलै हमारे साथ। घर जलाने की हिम्मत चाहिए। सरल नहीं है भक्ति। घर जलाना है; आग में उतरना है। कठिन है, क्योंकि अहंकार का बीज टूटेगा, तो तुम्हारे भीतर प्रेम का अंकुर उठेगा। बीज अगर टूटने से डरे, बीज अगर मरने से डरे, तो पौधा कभी पैदा न हो।
ओशो


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