Hot Posts

6/recent/ticker-posts

मालवा की रानी एक बहादुर योद्धा और प्रभावशाली शासक व कुशल राजनीतिज्ञ.

ऐसे शासन का उदाहरण पेश किया, जो हर दौर के लिए आदर्श..



 


 


भारत उन कुछ देशों में शुमार है जहां महिलाओं को घर से बाहर खुद को साबित करने के लिए लंबे इंतजार का तारीखी बोझ नहीं उठाना पड़ा। खासतौर पर सार्वजनिक जीवन में भारतीय महिलाओं ने तब कदम बढ़ाना शुरू कर दिया था, जब दुनिया में आधुनिकता की महक ठीक से फैली भी नहीं थी। इस लिहाज से एक महत्त्वपूर्ण नाम है अहिल्याबाई होल्कर। उन्होंने न सिर्फ पति और ससुर के देहांत के बाद अपने राज्य की गद्दी संभाली, बल्कि एक ऐसे शासन का उदाहरण पेश किया, जो हर दौर के लिए आदर्श है दरअसल, औरंगजेब के बाद देश में मुगलों की ताकत बिखरने लगी थी और मराठाओं का तेजी से विस्तार हो रहा था। इसी दौर में पेशवा बाजीराव ने अपने कुछ सेनापतियों को छोटे-छोटे राज्यों का स्वतंत्र कार्यभार सौंपा। मल्हारराव होल्कर को भी मालवा की जागीर मिली। उन्होंने अपने राज्य की स्थापना की और इंदौर को अपनी राजधानी बनाया।मल्हारराव का एक पुत्र था खंडेराव, जो न तो पराक्रमी था और न ही राजकाज में निपुण। वे चाहते थे कि उन्हें ऐसी पुत्रवधू मिले जो उनके बेटे के साथ उनके राज्य को भी कुशलता के साथ संभाले। बताते हैं कि मल्हारराव को एक बार कहीं से लौटते हुए देर हो गई तो उन्होंने पास के एक गांव में ठहरने का फैसला किया। वहां उन्होंने देखा कि गांव के लोग एक मंदिर में शाम की आरती के लिए जा रहे हैं। तभी उनके कानों में मीठी आवाज सुनाई दी।उन्होंने पलट कर देखा तो एक 10-12 साल की एक बच्ची मंदिर के अंदर आरती गा रही थी। यह बच्ची कोई और नहीं अहिल्या थी। मल्हारराव की तलाश पूरी हो चुकी थी। उन्होंने अहिल्या के पिता मान्कोजी शिंदे से मुलाकात की। रात्रि भोजन के दौरान उन्होंने अपना प्रस्ताव रखा, जिसे मान्कोजी ने तत्काल मान लिया। इस तरह अहिल्या होल्कर परिवार की बहू बनीं।शुरुआती कुछ परेशानियों के बाद अहिल्या ने राजभवन में जल्द ही सबका दिल जीत लिया। एक दिन अचानक खबर आई कि युद्ध में उनके पति खंडेराव होल्कर की मौत हो गई। अहिल्या के लिए यह बड़ा आघात था। पर कुछ दिनों में ही वह अपने ससुर के कामकाज में हाथ बंटाने लगीं।होल्कर राज्य विकास के रास्ते पर बढ़ ही रहा था कि तभी मल्हारराव भी चल बसे। अहिल्या के लिए यह एक और बड़ा झटका था। उन्हें जल्द ही राज्य हित में कोई बड़ा फैसला लेना था। पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। राजतिलक के कुछ दिनों बाद ही उनके बेटे मालेराव का भी निधन हो गया। अहिल्या के लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी थी। इससे पहले कि राज्य में कोई विरोध या भितरघात की स्थिति पैदा हो, अहिल्या ने खुद राजगद्दी पर बैठने का फैसला किया।मालवा की यह रानी एक बहादुर योद्धा और प्रभावशाली शासक होने के साथ-साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थी। इंदौर उनके 30 साल के शासन में एक छोटे से गांव से फलते-फूलते शहर में तब्दील हो गया। एनी बेसंट ने लिखा है- ‘उनके राज में सड़कें दोनों तरफ से वृक्षों से घिरी रहती थीं। राहगीरों के लिए कुएं और विश्रामघर बनवाए गए।गरीब, बेघर लोगों की जरूरतें हमेशा पूरी की गयीं। आदिवासी कबीलों को उन्होंने जंगली जीवन छोड़ गांवों में किसानों के रूप में बस जाने के लिए मनाया। हिंदू और मुस्लमान दोनों धर्मों के लोग सामान भाव से उस महान रानी के श्रद्धेय थे और उनकी लंबी उम्र की कामना करते थे। रानी अहिल्याबाई ने 70 वर्ष की उम्र में अपनी अंतिम सांस ली। उनके बाद उनके विश्वसनीय तुकोजीराव होल्कर ने शासन संभाला।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ