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अनजान होने का सुख

भरे बाजार आदमी की हत्या हो जाती है, लोगों की चीख निकल जाती है और आंखें भय से फैल जाती हैं परंतु पुलिस को चश्मदीद गवाह नहीं मिलता। बिल्कुल सामने दुकान लगाने वाले लालाजी पूछने पर कहते हैं,


मैं तो सौदा तोल रहा था।" यह ठीक भी है। मरने वाला मर गया। मारने वाला जीवित है। पुलिस का सहयोग तो मिलना नहीं है, गवाही के लिए अदालत के चक्कर काटने की जहमत अलग से। इसलिए अनजान बन जाना कहां गलत है। झख मारकर पुलिस गोल्हू गवाहों के सहारे अभियोजन चलाती है तो न्याय की क्या गारंटी। एक किस्सा बड़ा मौजूं है। गांव के एक बड़े चौधरी का परिवार भी बड़ा ही था।आये साल उनके यहां शादी ब्याह होते थे और कारज में दायित्व को लेकर उनके परिजन आपस में लड़ बैठते थे। लड़ते क्या थे, खूब लाठी डंडे चलते थे तो ब्याह में भगदड़ मच जाती थी। चौधरी साहब फैसला करने बैठते तो ठलुए (सेवक) की गवाही लेते। पूछते,-झगड़ा किसने शुरू किया?ठलुआ समझदार था। हमेशा कहता,-हुजूर आपकी सौगंध,पूरे कुनबे को कोल्हू में पिलवा दीजिए, मैं तो मेहमानों की खातिरदारी में लगा था।ठलुआ जानता था पिटने वाला कमजोर था, पीटने वाला अभी भी मजबूत है। कोई बात बिगड़ी तो चौधरी साहब परिजनों के खिलाफ उसकी तरफदारी में तो खड़े होंगे नहीं सो अनजान बनने में क्या घाटा है। अनजान बनना हालांकि मुश्किल काम है परंतु थोड़ी सी चतुराई राह आसान बनाती है। केवल आंखें झपकाकर बात करने की कला आपको गहरे संकट से बाहर ला सकती है।आगे मुंह निकालकर बात करने की आदत कष्टदायक हो सकती है। समाज में श्रेय लेने के लिए आगे आना और दायित्व निभाने के समय ज़रूरी काम याद आ जाना आपकी आदत में होना आवश्यक है। बेशक यह फायदे का सौदा है परंतु इससे पैदा होने वाले विकारों से कोई बच नहीं सकता।आप भी, चाहे आप जितने चतुर हों।


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